एशिया डूब रहा है, दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया में बाढ़ से गहराता जलवायु संकट
मुख्य बिंदु
- 1,300 से अधिक मौतें और 20 अरब डॉलर से ज्यादा का आर्थिक नुकसान।
- तीन चक्रवातों और सक्रिय मानसून ने रिकॉर्ड बारिश कराई।
- कई देशों में बाढ़, भूस्खलन और शहरी जलभराव।
- जलवायु परिवर्तन से आपदाएं ज्यादा तेज और बार-बार हो रही हैं।
दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया इस समय दुनिया की सबसे घातक और महंगी जलवायु आपदाओं में से एक का सामना कर रहा है। श्रीलंका और भारत से लेकर इंडोनेशिया और थाईलैंड तक आई भीषण बाढ़, भूस्खलन और तूफानों ने पूरे क्षेत्र को हिला कर रख दिया है। अब तक 1,300 से अधिक लोगों की जान जा चुकी है, जबकि आर्थिक नुकसान 20 अरब डॉलर से भी ऊपर पहुंच गया है। यह संकट सिर्फ प्राकृतिक नहीं, बल्कि जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एक गहरी चेतावनी बनकर सामने आया है।
दुर्लभ चक्रवातों और सक्रिय मानसून ने बढ़ाई तबाही
इस व्यापक आपदा के पीछे तीन उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की एक दुर्लभ श्रृंखला रही, जिसे असामान्य रूप से सक्रिय पूर्वोत्तर मानसून ने और अधिक ताकत दी। कई इलाकों में दशकों में पहली बार इतनी भारी बारिश दर्ज की गई। शहर जलमग्न हो गए, खेत डूब गए, सड़कें और पुल बह गए। इस तबाही ने यह साफ कर दिया है कि दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया अब दुनिया के सबसे बड़े बाढ़-जोखिम वाले क्षेत्रों में शामिल हो चुका है।
एशिया में बढ़ते ‘कंपाउंड डिजास्टर’ और जलवायु परिवर्तन
वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि एशिया में एक के बाद एक आने वाली चरम मौसम घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं। इन घटनाओं को “कंपाउंड जलवायु आपदा” कहा जा रहा है, जहां चक्रवात, भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन एक-दूसरे को और विनाशकारी बना देते हैं। समुद्र के बढ़ते तापमान से चक्रवात ज्यादा शक्तिशाली हो रहे हैं, जबकि वनों की कटाई और भूमि क्षरण ने प्राकृतिक सुरक्षा कवच को कमजोर कर दिया है। पुराने और अपर्याप्त बाढ़ सुरक्षा ढांचे तथा जलवायु अनुकूलन और आपदा तैयारी में लंबे समय से कम निवेश ने हालात और गंभीर बना दिए हैं।
बाढ़-जोखिम वाले इलाकों में बढ़ती आबादी
मलेशिया और इंडोनेशिया जैसे देशों में अब 20 प्रतिशत से अधिक आबादी ऐसे इलाकों में रहती है जहां बाढ़ का खतरा हमेशा बना रहता है। जलवायु परिवर्तन और तेज शहरीकरण के कारण यह संख्या लगातार बढ़ रही है। जैसे-जैसे शहर फैलते जा रहे हैं, प्राकृतिक जल निकासी तंत्र खत्म हो रहा है और जोखिम कई गुना बढ़ता जा रहा है।
आर्थिक विकास आगे, जलवायु योजना पीछे
दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों ने दशकों तक तेज आर्थिक विकास को प्राथमिकता दी और दीर्घकालिक जलवायु योजना को नजरअंदाज किया। अब उसी नीति का खामियाजा भारी जान-माल के नुकसान के रूप में सामने आ रहा है। बुनियादी ढांचे का विकास तो हुआ, लेकिन वह बदलते मौसम के अनुकूल नहीं बनाया गया, जिससे आपदाओं का असर और घातक हो गया।
बाढ़ संकट के राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव
फिलीपींस में बाढ़ सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं के लिए तय किए गए अरबों डॉलर के फंड में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार सामने आया है। इसके चलते कई अहम परियोजनाएं अधूरी रह गईं और निवेशकों का भरोसा भी कमजोर पड़ा है। वहीं थाईलैंड और इंडोनेशिया पर पुनर्निर्माण का भारी वित्तीय दबाव बढ़ गया है, क्योंकि इन दोनों देशों को अरबों डॉलर खर्च करने हैं जबकि उनकी अर्थव्यवस्थाएं पहले से ही तनाव में हैं।
वियतनाम में उद्योग ठप और महंगाई में इजाफा
एशिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल वियतनाम भी इस संकट से अछूता नहीं रहा। बाढ़ और तूफानों के कारण फैक्ट्रियां बंद करनी पड़ीं, सप्लाई चेन बाधित हुई और महंगाई बढ़ गई। इस साल ही जलवायु आपदाओं से देश को करीब 3.2 अरब डॉलर का नुकसान हो चुका है, जिसने आर्थिक स्थिरता पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
चक्रवात दितवाह: दक्षिण एशिया की कमजोरी का आईना
इस पूरे संकट के बीच चक्रवात ‘दितवाह’ इस सीजन का सबसे खतरनाक तूफान साबित हुआ। इसने श्रीलंका और दक्षिण भारत में भारी तबाही मचाई और क्षेत्र की जलवायु संवेदनशीलता को उजागर कर दिया। श्रीलंका में यह हाल के वर्षों की सबसे बड़ी आपदाओं में से एक बन गया, जहां आर्थिक नुकसान देश की GDP के 3 से 5 प्रतिशत के बराबर आंका गया। सैकड़ों लोगों की मौत हुई और लाखों लोग प्रभावित हुए, जबकि कृषि और उद्योग दोनों को गंभीर क्षति पहुंची।
अर्थव्यवस्था की जड़ों पर पड़ा असर
इस तबाही ने यह साफ कर दिया है कि अब चरम मौसम सिर्फ जान-माल तक सीमित नहीं है। इसका सीधा असर खाद्य सुरक्षा, उद्योग, रोजगार और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की नींव पर पड़ रहा है। सब्जी उत्पादक क्षेत्र बर्बाद हो गए, फैक्ट्रियों का उत्पादन ठप हुआ और आपूर्ति व्यवस्था चरमरा गई।
दक्षिण भारत में मौसम के चरम उतार-चढ़ाव
दक्षिण भारत, खासकर तमिलनाडु, पुडुचेरी और आंध्र प्रदेश में बारिश का पैटर्न जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट उदाहरण बनकर सामने आया। अक्टूबर में अत्यधिक बारिश हुई, जिससे पूर्वोत्तर मानसून का सबसे गीला दौर देखा गया। इसके बाद नवंबर में अचानक बारिश में गिरावट आई, लेकिन महीने के अंत में चक्रवात दितवाह के अवशेषों से मूसलाधार बारिश हुई और चेन्नई जैसे बड़े शहर जलमग्न हो गए।
घाटे से अधिकता तक: मानसून का बदला चेहरा
विडंबना यह रही कि कुछ ही दिनों की अत्यधिक बारिश ने पूरे सीजन का मौसमी घाटा भी पूरा कर दिया। चेन्नई और पूरे तमिलनाडु में बारिश सामान्य से अधिक दर्ज की गई। कुछ दिनों में घाटे से अधिकता में बदल जाना जलवायु परिवर्तन से प्रभावित मानसून का सबसे बड़ा संकेत है, जो भविष्य में और गंभीर जोखिमों की ओर इशारा करता है।
एक मौसम प्रणाली, कई देशों में तबाही
चक्रवात दितवाह से जुड़े मौसम सिस्टम का असर सिर्फ भारत या श्रीलंका तक सीमित नहीं रहा। इसी प्रणाली ने इंडोनेशिया और थाईलैंड में भी जानलेवा बाढ़ और भूस्खलन कराए। पहले आए चक्रवातों के साथ मिलकर कुल मौतों का आंकड़ा 1,300 के पार चला गया। घनी आबादी, तेज शहरीकरण, लंबी तटरेखाएं और मानसून पर निर्भर अर्थव्यवस्थाएं मिलकर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया को दुनिया के सबसे जलवायु-संवेदनशील क्षेत्रों में बदल रही हैं।
आगे का रास्ता: अब विकल्प नहीं, जरूरत
मजबूत बाढ़ सुरक्षा ढांचा, प्रभावी शुरुआती चेतावनी प्रणाली, वनीकरण, बेहतर शहरी योजना, सामुदायिक तैयारी और टिकाऊ विकास अब सिर्फ सुझाव नहीं रह गए हैं। ये कदम आर्थिक और सामाजिक स्थिरता के लिए अनिवार्य हो चुके हैं। अगर समय रहते ठोस कार्रवाई नहीं की गई, तो यह जलवायु संकट आने वाले वर्षों में और भी भयावह रूप ले सकता है।
सवाल अब यह नहीं कि आपदा आएगी या नहीं। असल सवाल यह है, जब अगली आपदा आएगी, तो देश कितने तैयार होंगे?
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